सबसे मुश्किल कार्य देश को बदलना नहीं, खुद में बदलाव लाना है|

ग्लोबल वार्मिंग: क्या यही है हमारा अंत, या फिर...

-सुमंत

आजकल अक्सर GLOBAL WARMING (वैश्विक तापमान-वृद्धि) नामक शब्द की चर्चा सुनाई देती है। पृथ्वी पर बढ़ती जनसँख्या, वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, अनियंत्रित औद्योगिकीकरण तथा असीमित प्रदुषण आदि के कारण वायुमंडल के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। इससे ध्रुवीय क्षेत्रों की बर्फ तेज़ी से पिघलती जा रही है, जिसके कारण महासागरों का जल-स्तर बढ़ता जा रहा है और तटीय इलाकों के डूब जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार समुद्री तटों पर बसे विश्व के १९ प्रमुख शहरों में से १६ शहर इस खतरे की चपेट में हैं। दूसरी ओर, वातावरण में तापमान बढ़ने के कारण मौसम-चक्र भी असंतुलित होता जा रहा है। इन सब परिवर्तनों के कारण निकट भविष्य में होने वाले दुष्प्रभावों तथा अंततः संपूर्ण पृथ्वी के विनाश की आशंका के कारण समस्त विश्व के प्रकृति-प्रेमी, पर्यावरणविद तथा वैज्ञानिक अत्यधिक चिंतित हैं। इस सभी की यह चेतावनी है की यदि पृथ्वी पर जीवन को बचाए रखना है, तो वैश्विक तापमान-वृद्धि को कम करने के लिए तुंरत बड़े पैमाने पर उपाय करना तथा प्रकृति के साथ खिलवाड़ बंद करना अति-आवश्यक है; अन्यथा हमारा अंत निश्चित है। इस चेतावनी का अर्थ स्पष्ट है-"प्रकृति बचेगी-विश्व बचेगा !!"

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प्रकृति' वस्तुतः पाँच प्रमुख तत्वों -पृथ्वी(मृदा), अग्नि, वायु, जल तथा आकाश- का समन्वय है। इन पञ्च तत्वों के मिश्रण से ही संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हुआ है। सृष्टि के कण-कण में, प्रत्येक निर्जीव तथा सजीव में, सर्वत्र ये पाँच तत्व विद्यमान हैं। हमारे ग्रह पर जीवन की उत्पत्ति, अस्तित्व तथा विकास इन पाँच तत्वों के उचित संतुलन के कारण ही सम्भव हो सका है। सृष्टि की संपूर्ण विविधता भी इन तत्वों के विभिन्न संयोगों के कारण ही बनती हैं। अतः पृथ्वी पर जीवन को सुरक्षित रखने के लिए इन तत्वों के बीच उचित संतुलन को बिगड़ने देना अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

जिस प्रकृति ने हमें जन्म दिया है, उसने हमारी आवश्यकताओं की पूर्ण करने की समुचित व्यवस्था भी की है। पृथ्वी पर उपस्थित समस्त जीव-जंतु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे इत्यादि सभी अपनी समस्त आवश्यकताओं के लिए प्रकृति पर ही आश्रित हैं। इसी प्रकार प्रकृति, मनुष्य की भी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम है। यदि ऐसा होता, तो पृथ्वी से मनुष्य का अस्तित्व बहुत पहले ही मिट चुका होता। प्रकृति से ही हमें पोषण तथा संरक्षण मिल रहा है। लेकिन, दुःख और चिंता का विषय है कि मनुष्य स्वयं ही अपनी गलतियों के कारण प्रकृति से प्राप्त हो रहे इस संरक्षण को समाप्त करता जा रहा है। फलस्वरूप, केवल मनुष्य-जाति पर, बल्कि समस्त विश्व के अस्तित्व पर ही संकट के बादल मंडराने लगे हैं। अपनी असीमित आकाँक्षाओं, स्वार्थ तथा लालच के कारण हम लगातार प्रकृति को हानि पहुँचा रहे हैं, जिससे प्राकृतिक संतुलन बहुत तेज़ी से बिगड़ रहा है। प्राकृतिक संसाधनों जैसे खनिज-पदार्थ, पेट्रोल, कोयला इत्यादि के बल पर हमने भौतिक-प्रगति की तथा सुख-सुविधा के साधन जुटाए। लेकिन, उसके साथ ही हमारा लालच भी चरम पर पहुँच गया है। इसके कारण प्रकृति का अधिक से अधिक शोषण करने की मानों होड़-सी लग गई है। हम यह भूल गए हैं की प्रकृति हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है, लेकिन हमारी असीमित इच्छाओं की नहीं। परिणामस्वरूप, अपनी गलतियों के कारण हमने सम्पूर्ण विश्व का अस्तित्व ही संकट में डाल दिया है।

प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने तथा इसके द्वारा अधिक से अधिक सुख-समृद्धि पाने की लालसा से अनेक यंत्रों, वाहनों, तकनीकों तथा उद्योगों का आविष्कार एवं विकास हुआ। इनके आधार पर प्रकृति का अधिक से अधिक शोषण करके अधिक से अधिक लाभ पाने के प्रयास भी प्रारम्भ हुए। सुख-समृद्धि बढ़ने के साथ-साथ हमारी जीवन-शैली भी तेज़ी से बदली और साथ ही प्राकृतिक संतुलन भी तेज़ी से बिगाड़ने लगा। फलस्वरूप, पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल तथा आकाश में से कोई भी तत्व अब शुद्ध एवं सुरक्षित नहीं है। जनसँख्या-वृद्धि के कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की जाने लगी। बड़े-बड़े उद्योग-धंधे, कल-कारखाने आदि को चलाने के लिए कोयला, पेट्रो-पदार्थ तथा अन्य खनिजों की आवश्यकता होती है। इसकी पूर्ति के लिए भू-गर्भ की लगातार खुदाई हो रही है। अधिक से अधिक उत्पादन करने के लिए बड़े-बड़े यंत्रों का निर्माण किया गया है, जो प्रदूषण को बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। कल-कारखानों तथा वाहनों का धुंआ वायु-मंडल को प्रदूषित कर रहा है। इससे केवल विषैली गैसों का अनुपात बढ़ रहा है, बल्कि कहीं-कहीं तो वायुमंडल की ओजोन -परत (Ozone Layer) में भी छिद्र उत्पन्न हो गए हैं। इसके कारण अनेक प्रकार की घातक बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं। हमारे दैनिक जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक जैसे हानिकारक पदार्थ का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। प्रयोग के बाद इसे नष्ट करना अत्यन्त कठिन है। यदि नष्ट करने के लिए इसे जलाया जाए, तो इससे विभिन्न हानिकारक गैसें उत्पन्न होती हैं, जो वातावरण के प्रदूषण को बहुत अधिक बढाती हैं तथा साथ ही हमारे स्वास्थ्य के लिए भी संकट उत्पन्न करती हैं। यदि इसे जलाया जाए तो इसका अस्तित्व वर्षों तक बना रहता है, क्योकि अन्य पदार्थों के विपरीत प्लास्टिक समय के साथ गलता या नष्ट नहीं होता। खेतों में रासायनिक खाद के प्रयोग से कुछ समय तक उपज तो बढ़ जाती है, लेकिन, बाद में धीरे-धीरे धरती बंजर होने लगती है। साथ ही, ये रासायनिक खाद तथा फसल को बचाने के लिए छिडके जाने वाले कीटनाशक पदार्थ, दोनों ही अनाज के साथ मिल जाने के कारण हमारे स्वास्थ्य के लिए संकट भी उत्पन्न करते हैं। पश्चिम के कुछ देशों ने अब इस संकट को भली-भांति पहचान लिया है, अतः आज-कल वहाँ रासायनिक खाद के प्रयोग द्वारा उत्पन्न अन्न की बजाय जैविक खाद के प्रयोग से उत्पन्न अन्न को अधिक प्रयोग किया जाने लगा है।

जल हमारे जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण आवश्यकताओं में से एक है। लेकिन, हमने इसे भी अशुद्ध कर दिया है। नालियों, कल-कारखानों तथा अन्य स्त्रोतों से निकलने वाला गन्दा पानी अक्सर सीधे ही नदियों तथा अन्य जल-स्त्रोतों में बहा दिया जाता है। इसके कारण जल-प्रदूषण तेज़ी से बढ़ रहा है। नल-कूपों (Borewells) के बढ़ते प्रयोग के कारण भू-गर्भ में जल-स्तर लगातार नीचे जा रहा है। इससे जगह-जगह प्राकृतिक जल-स्त्रोत (कुएं, तालाब, छोटी नदियाँ इत्यादि) सूखने लगे हैं। यहाँ तक की अन्तरिक्ष भी प्रदूषण से मुक्त नहीं है। हमने अनेक मानव-निर्मित उपग्रह अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित किए हैं। समय के साथ-साथ इनकी कार्यअवधि समाप्त हो जाने पर उए उपग्रह तथा अन्य यंत्र अन्तरिक्ष में ही घूमते रहते हैं। इस प्रकार हम आकाश को भी प्रदूषित कर रहे हैं। कुछ माह पूर्व ही अपने एक उपग्रह को नष्ट करने के लिए अमरीका ने अन्तरिक्ष में परमाणु-हथियारों का भी प्रयोग किया था। इस प्रकार अपनी ग़लत नीतियों एवं अमर्यादित आचरण के कारण हमने समस्त प्राकृतिक संतुलन को स्वयं ही बिगाड़ दिया है, तथा अब इसके दुष्परिणाम भी भुगत रहे हैं।

हमारी गलतियों के कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है, अतः इसे बचाने का कर्तव्य भी हमारा ही है। यहाँ महत्वपूर्ण प्रश्न यह नही है किइस बढ़ते प्राकृतिक असंतुलन के लिए दोषी कौन है? इस पर तो बाद में भी विचार किया जा सकता है। सत्य यह भी है कि किसी--किसी रूप में कम-अधिक मात्रा में प्रत्येक मनुष्य इसके लिए दोषी है। इस समय तो महत्वपूर्ण प्रश्न यही है कि प्रकृति को किस प्रकार बचाया जाए ताकि सम्पूर्ण विश्व कि रक्षा हो सके। इसके लिए आवश्यक उपायों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है-व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक। व्यक्तिगत श्रेणी में ऐसे उपाय शामिल हैं जिनका पालन प्रत्येक व्यक्ति सरलता से कर सकता है। सार्वजनिक उपाय वे हैं, जिन्हें क्रियान्वित करने के लिए विभिन्न सामाजिक संगठनों तथा शासन-तंत्र की भागीदारी आवश्यक है।

निम्नलिखित सामान्य सुझाव प्रत्येक व्यक्ति सरलता से अपना सकता है :-
सबसे पहले प्रत्येक मनुष्य को यह समझना चाहिए की प्रकृति की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, की इसका शोषण हमारा अधिकार है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक-संसाधनों का दोहन तो हम करें, लेकिन प्रकृति के अंधाधुंध शोषण को रोकना होगा।
दैनिक जीवन में हम स्वच्छता का अधिक से अधिक ध्यान रखें। कूड़ा-करकट तथा अन्य पदार्थ यहाँ-वहाँ फैलाकर वातावरण को प्रदूषित करें।
हम अपने व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक जल-स्त्रोतों को शुद्ध रखें। कुएं, तालाब, नदियाँ इत्यादि में स्नान करते समय साबुन, शैंपू तथा अन्य रासायनिक तत्वों के प्रयोग से बचें, ताकि ये जल-स्त्रोत अशुद्ध हों।
प्लास्टिक तथा पौलीथीन के प्रयोग को कम से कम करें। इनके स्थान पर कपड़े के सुंदर थैलों तथा कागज़ के आकर्षक लिफाफों का प्रयोग किया जा सकता है।
जहाँ तक सम्भव हो, वातानुकूलन-यंत्रों (Air-Conditioners) तथा रेफ्रीजरेटरों का प्रयोग कम से कम करना चाहिए, क्योकिं इनसे भी वातावरण के तापमान में वृद्धि होती है।
निजी वाहनों के स्थान पर सार्वजनिक परिवहन प्रणाली, रेल इत्यादि का प्रयोग अधिक करना चाहिए, ताकि इंधन की खपत और प्रदूषण दोनों में कमी आए। इसी तरह जहाँ सम्भव हो, वहाँ साइकिल का भी उपयोग किया जाना चाहिए।
हम अपने जीवन में शाकाहार को अपनाएं तथा दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करें। मांसाहार के लिए बड़े पैमाने पर पशु-पक्षियों की हत्या की जाती है, जिससे पारिस्थितिकीय असंतुलन (Ecological Imbalance) बढ़ता है।
वायु-प्रदूषण को कम करने में पेड़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अतः हमें अपने आस-पास का वातावरण प्रदूषण-मुक्त तथा हरा-भरा रखने के लिए अधिक से अधिक पेड़ लगाने चाहिए और उनकी रक्षा करनी चाहिए। यदि जगह की कमी हो, तो कम से कम गमलों में छोटे-छोटे पौधे तो अवश्य ही लगाने चाहिए।
कृषि कार्यों में यंत्रों की बजाय पशु-धन का अधिक प्रयोग करें। छोटे-छोटे खेत जोतने के लिए ट्रैक्टर के स्थान पर बैलों का प्रयोग करना चाहिए।
१० खेतों में रासायनिक खाद तथा कीटनाशकों की बजाय केंचुआ खाद, गोबर, गोमूत्र इत्यादि प्राकृतिक एवं जैविक साधनों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

ये कुछ ऐसे उपाय हैं, जिन्हें कोई भी व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में सरलता से अपनाकर प्रकृति की रक्षा में अपना योगदान दे सकता है।
इनके अलावा कुछ ऐसे उपाय हैं, जिन्हें क्रियान्वित करने के लिए शासन-तंत्र तथा अन्य सामजिक संगठनों की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। जैसे :-

विद्युत्-उत्पादन के लिए पवन-ऊर्जा तथा सौर-ऊर्जा के उपयोग को बढावा देना।
सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को अधिक सक्षम, सुविधाजनक और सस्ता बनाना।
वृक्षारोपण, जल-संवर्धन इत्यादि से जुड़े कार्यक्रम आयोजित करने तथा उनमें सक्रिय सहभाग लेने के लिए सभी की प्रोत्साहित करना।
योग, आयुर्वेद तथा अन्य प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों को बढावा देना।
असीमित औद्योगिकीकरण की बजाय प्रकृति-आधारित विकास की अवधारणा पर विचार करके, उसे लागू करने का प्रयास।
ये कुछ ऐसे उपाय हैं, जिन पर सम्पूर्ण विश्व के शासकों तथा सामजिक संगठनों को विचार करना चाहिए।

पृथ्वी हमारे सौर-मंडल का सबसे सुंदर ग्रह है। प्रकृति की अनुपम विविधताएं इसकी सुन्दरता को और बढाती हैं। लेकिन, यह सुन्दरता निर्जीव नहीं है। पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही इस सुंदर ग्रह को सजीव बनाता है। सर्वाधिक बुद्धिमान तथा शक्तिशाली प्रजाति होने के कारण इस पृथ्वी की रक्षा का कर्तव्य मनुष्य का ही है। हम अपने विचार एवं व्यवहार से अपने इस घर की सुन्दरता को बढ़ा भी सकते हैं और नष्ट भी कर सकते हैं। निर्णय हमें स्वयं करना है। आवश्यकता इस बात को है की हम सब मिलकर पृथ्वी को पुनः हरा-भरा और सुंदर बनाने तथा प्रकृति की रक्षा करने का संकल्प लें, ताकि सम्पूर्ण विश्व की रक्षा हो सके। प्रकृति अर्थात पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल तथा आकाश के बिना हमारा अस्तित्व सम्भव नहीं है। अतः प्रकृति को बचाना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि, 'प्रकृति बचेगी-विश्व बचेगा !!'

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